वांछित मन्त्र चुनें

त्वं न॑ इन्द्र ऋत॒युस्त्वा॒निदो॒ नि तृ॑म्पसि । मध्ये॑ वसिष्व तुविनृम्णो॒र्वोर्नि दा॒सं शि॑श्नथो॒ हथै॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ na indra ṛtayus tvānido ni tṛmpasi | madhye vasiṣva tuvinṛmṇorvor ni dāsaṁ śiśnatho hathaiḥ ||

पद पाठ

त्वम् । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । ऋ॒त॒ऽयुः । त्वा॒ऽनिदः॑ । नि । तृ॒म्प॒सि॒ । मध्ये॑ । व॒सि॒ष्व॒ । तु॒वि॒ऽनृ॒म्ण॒ । ऊ॒र्वोः । नि । दा॒सम् । शि॒श्न॒थः॒ । हथैः॑ ॥ ८.७०.१०

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:70» मन्त्र:10 | अष्टक:6» अध्याय:5» वर्ग:9» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:8» मन्त्र:10


बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - (दीर्घायो) हे चिरन्तन हे नित्यसनातन देव ! (अदेवः) जो तेरी उपासना प्रार्थना आदि से रहित (मर्त्यः) मनुष्य है, वह (सीम्+इषम्) किसी प्रकार के अन्नों को (न+आपत्) न पावे। (यः) जो तू (एतग्वा+चित्) नाना वर्णयुक्त (एतशा) इन दृश्यमान स्थावर और जङ्गमरूप संसारों को (युयोजते) कार्य्य में लगाकर शासन कर रहा है। इसी को अन्य शब्दों से विस्पष्ट करते हैं, (इन्द्रः+हरी+युयोजते) परमात्मा इन परस्पर हरणशील द्विविध संसारों को नियोजित कर रहा है। उस परमपिता को जो नहीं भजता है, उसका कल्याण कैसे हो सकता है ॥७॥
भावार्थभाषाः - अदेव−इससे यह दिखलाया गया है कि जो ईश्वरोपासना से रहित है, वह इसलोक और परलोक दोनों में दुःखभागी होता है ॥७॥
बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - हे दीर्घायो ! नित्य चिरन्तन देव ! अदेवः=देवोपासनारहितः तवोपासनाविमुखः। मर्त्यः। सीम्=सर्वम्। इषं=अन्नम्। नापत्=न प्राप्नोतु। यस्त्वम्। एतग्वाचित्=नानावर्णौ। एतशा=एतशौ इमौ स्थावरजङ्गमौ। युयोजते=अतिशयेन नियोजयति। इदमेव विस्पष्टयति। इन्द्रः। हरी=परस्परहरणशीलौ स्थावरजङ्गमात्मकौ संसारौ युयोजते ॥७॥